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11 May, 2014

"ग़ज़ल-लगे खाने-कमाने में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

छलक जाते हैं अब आँसूग़ज़ल को गुनगुनाने में।
नही है चैन और आरामइस जालिम जमाने में।।

नदी-तालाब खुद प्यासेचमन में घुट रही साँसें,
प्रभू के नाम पर योगीलगे खाने-कमाने में।

हुए बेडौल तनचादर सिमट कर हो गई छोटी,
शजर मशगूल हैं अपने फलों को आज खाने में।

दरकते जा रहे अब तोहमारी नींव के पत्थर,
चिरागों ने लगाई आगखुद ही आशियाने में।

लगे हैं पुण्य पर पहरेदया के बन्द दरवाजे,
दुआएँ कैद हैं अब तोगुनाहों की दुकानों में।

जिधर देखो उधर ही “रूप” का, सामान बिकता है,
रईसों के यहाँ अब, इल्म रहता पायदानों में।

3 comments:

  1. दरकते जा रहे अब तो, हमारी नींव के पत्थर,
    चिरागों ने लगाई आग, खुद ही आशियाने में।
    बहुत सुन्दर भाव भरी गजल ....
    भ्रमर ५

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  2. बहुत सशक्त तंज किया है ग़ज़ल में।

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