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13 July, 2014

"बादल का चित्रगीत" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
एक गीत
बादल का चित्रगीत
कहीं-कहीं छितराये बादल,
कहीं-कहीं गहराये बादल।

काले बादल, गोरे बादल,
अम्बर में मँडराये बादल। 

उमड़-घुमड़कर, शोर मचाकर,
कहीं-कहीं बौराये बादल।
भरी दोपहरी में दिनकर को,
चादर से ढक आये बादल।

खूब खेलते आँख-मिचौली,
ठुमक-ठुमककर आये बादल।
दादुर, मोर, पपीहा को तो,
मेघ-मल्हार सुनाये बादल।

जिनके साजन हैं विदेश में,
उनको बहुत सताये बादल।

6 comments:

  1. बादल बरसें ... जम कर बरसें ... धरती की प्यास बुझायें ...
    सुन्दर गीत शास्त्री जी ...

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  2. wah sir kya baat h Prakrit ka bahut hi sunder chitral kiya h sir apne.

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  3. दादुर मोर पपीहा को तो मेघ मल्हार सुनाये बादल, सावन का महीना और ये पंक्तियां किसी को भी मोह लेने में सक्षम, बधाई आपको आदरणीय बारम्बार

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